यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल का जो मूलतः The way forward for the Samsung India workers, after the Stalinist CITU’s suppression of their militant 37-day strike 24 नवंबर 2024 को प्रकाशित हुआ थाI
तमिलनाडु की प्रदेश सरकार के दबाव के सामने झुकते हुए, स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) या सीपीएम की अगुवाई वाले ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशन- सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) ने तमिलनाडु में घरेलू उपकरण बनाने वाले सैमसंग इंडिया प्लांट के 1500 परमानेंट वर्करों की 37 दिनों लंबी चली हड़ताल को 15 अक्टूबर 2024 को अचानक ख़त्म करा दिया। वर्करों को ये विश्वास दिलाया गया कि वे 17 अक्टूबर को काम पर वापस लौटेंगे। लेकिन दक्षिण कोरियाई मल्टीनेशनल कंपनी ने मज़दूरों पर नकेल कसने के लिए, सीटू/सीपीएम के विश्वासघात का फायदा उठाया। आजतक, मज़दूरों का एक छोटा हिस्सा ही काम पर लौट पाया है। और जो लोग वापस लौटे हैं उन्हें “ट्रेनिंग सेशन“ में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया, जिसमें मैनेजरों ने उन्हें धमकाया और उन्हें मैनेजमेंट द्वारा बनाए गए जेबी वर्कर्स कमेटी में शामिल करने को मजबूर किया।
सीटू ने कट्टर पूंजीपति परस्त डीएमके की प्रदेश सरकार के सामने पूरी तरह हथियार डाल दिए और वो भी काम के दिनों को कम करने और मैनेजमेंट की कड़ाई में ढील देने या अपने दयनीय वेतन में बढ़ोत्तरी की मज़दूरों की मांगों में से किसी पर भी जीत हासिल किए बिना। यहां तक कि इसने उस मांग को भी छोड़ दिया, जिसके बारे में उसने दावा किया था कि यह हड़ताल का केंद्रीय मुद्दा है- यानी, श्रम मंत्रालय द्वारा एसआईडब्ल्यूयू (सैमसंग इंडिया वर्कर्स यूनियन) के औपचारिक पंजीकरण दिए जाने की मांग, जोकि भारतीय श्रम क़ानूनों के तहत एक संवैधानिक अधिकार माना जाता है।
अब सैमसंग वर्कर बदले की भावना से लैस मैनेजमेंट के रहमो करम पर हैं। 17 अक्टूबर को जब हड़ताल में हिस्सा ले चुके मज़दूर फ़ैक्ट्री गेट पर पहुंचे तो उन्हें सैमसंग मैनेजमेंट द्वारा बताया गया कि उन्हें सबसे पहले सप्ताह भर लंबे अनिवार्य 'ट्रेनिंग सेशन' से होकर गुजरना होगा और एक समय में 150 वर्कर इसमें भाग ले सकेंगे। अभी तक फ़ैक्ट्री में 450 वर्करों को ही काम पर वापस लौटने की इजाज़त दी गई है।
सीटू ने ऐसे समय में हड़ताल को ख़त्म कराया जब यह तमिलनाडु और पूरे देश में वर्ग संघर्ष का प्रमुख मुद्दा बन रहा था। भारत के धुर दक्षिणपंथी नरेंद्र मोदी नीत केंद्र सरकार और वैश्विक निवेशकों के दबाव में डीएमके सरकार, हड़ताल को तोड़ने के लिए और भी कड़े और हिंसक पुलिसिया दमन का सहारा ले रही थी। इसकी वजह से व्यापक मज़दूर आक्रोश का ख़तरा पैदा हो गया था।
सीटू के पूरी तरह आत्मसमर्पण करने के पीछे एक और कारण यह था कि डीएमके सरकार ने सीपीएम और छोटी स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (सीपीआई) को यह स्पष्ट कर दिया था कि पुलिसिया कार्रवाई को लेकर उनकी नाम मात्र की आलोचना भी गठबंधन के 'हित' में नहीं है और डीएमके उनके साथ अपने गठबंधन को तोड़ सकती है। ये दोनों पार्टियां डीएमके के साथ लंबे समय से राजनीतिक गठबंधन में हैं।
सीटू ने सैमसंग मैनेजमेंट और तमिलनाडु की डीएमके सरकार के सामने अपने घटिया विश्वासघात को ऐतिहासिक 'जीत' के रूप में प्रस्तुत कर इसका जश्न मनाया। लंबे समय से सीटू के पदाधिकारी रहे और एसआईडब्ल्यूयू नेता मुथुकुमार ने इसे ऐसी जीत बताया 'जिसे पूरी दुनिया आश्चर्य से देख रही थी' और इसने 'मज़दूरों में खुशी का संचार किया।'
मुथुकुमार द्वारा चित्रित जीत की पूरी तरह से नकली तस्वीर के विपरीत, डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस संवाददाताओं के साथ चर्चा में सैमसंग मज़दूरों ने सीटू द्वारा पीठ में छुरा घोंपने पर अपना गुस्सा और कड़वाहट को ज़ाहिर किया।
जब कंपनी ने हड़ताल ख़त्म होने के बाद एसआईडब्ल्यूयू को मान्यता देने से अपने अड़ियल रुख़ को और कड़ा कर दिया है, तो स्टालिनवादियों ने बड़ी आशा से मैनेजमेंट से मान्यता देने की अपील की और कहा कि मज़दूर अशांति को काबू करने में वे उनके सबसे बेहतर पार्टनर बन सकते हैं।
इस तरह मुथुकुमार, जिसे सीटू ने बिना रैंक एंड फ़ाइल की सहमति लिए एसआईडब्ल्यूयू अध्यक्ष के पद पर थोप दिया है, ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट किया, जिसमें मैनेजमेंट को बहुत अस्पष्ट और खोखली धमकी दी गई कि अगर मैनेजमेंट उत्पादन बढ़ाने में हयोग की अपील पर अपने अड़ियल रुख़ में बदलाव नहीं करता है तो उसे ”नतीजे” भुगतने पड़ सकते हैं।
मुथुकुमार ने लिखा, ”सीटू वर्कर शांति चाहते हैं और हम उत्पादन में उनकी मदद कर रहे हैं, इसलिए हम यह एलान करते हैं कि लंबे संघर्ष के बाद आई इस औद्योगिक शांति को बिना पूर्वाग्रह के बनाए रखने की ज़िम्मेदारी सैमसंग मैनेजमेंट की है।”
यह घोषणा उसी घटिया भूमिका के अनुरूप थी, जिसे स्टालिनवादियों की अगुवाई वाला सीटू दशकों से निभा रहा है। इसने एक के बाद एक जुझारू मज़दूर संघर्ष के साथ विश्वासघात किया और उसे धोखा दिया, ख़ासकर तमिलनाडु में, जोकि भारत का सबसे बड़ा मैन्युफ़ैक्चरिंग हब बन चुका है। उदाहरण के लिए साल 2010 में सीटू ने ताइवान की कंपनी फॉक्सकॉन के 7000 वर्करों और चीन के मालिकाने वाले बीवाईडी कार्पोरेशन के चेन्नई प्लांट में काम करने वाले 3000 वर्करों को मैनेजमेंट के सामने घुटने टेकने मजबूर कर दिया, इसके बावजूद कि मज़दूरों ने सप्ताह भर लंबी चली हड़ताल में संघर्ष किया।
सैमसंग हड़ताल के मामले में सीटू ने विशाल ओरागाडाम-श्रीपेरम्बदूर औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरों को समर्थन के लिए लामबंद नहीं किया, जबकि यह प्लांट इसी क्षेत्र में स्थित है। इसे पूरे भारत में व्याप्त गरीबी मज़दूरी, अनिश्चित ठेका मज़दूरी और क्रूर कामकाजी हालात के ख़िलाफ़ व्यापक मज़दूर वर्ग की लामबंदी का अगुआ बनना तो दूर की बात है। मुथुकुमार और उनके स्टालिनवादी पदाधिकारी साथियों ने पड़ोस में स्थित सैमसंग सप्लायर कंपनी एसएच इलेक्ट्रॉनिक्स में काम करने वाले क़रीब 100 परमानेंट वर्करों को भी आम सभा में या किसी कार्रवाई में नहीं बुलाया। जबकि ये वर्कर सीटू से संबद्ध थे और यूनियन बनाए जाने का संघर्ष चलाने के चलते 12 वर्करों को निकाल दिया गया था और वे महीनों से इसके ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे थे।
इसकी बजाय, सीटू नेताओं ने वर्करों से कहा कि वे डीएमके सरकार के श्रम मंत्रालय और अदालतों से अपील करें। उन्होंने दावा किया कि इस मामले में उनकी ओर से दख़ल देने के लिए उन पर दबाव डाला जा सकता है।
असल में, हड़ताल में इसका उलटा ही नज़ारा दिखाया। सरकार, अदालतें और पुलिस ने सैमसंग के साथ मिलीभगत की।
सैमसंग वर्करों की हड़ताल 9 सितम्बर को शुरू हुई थी और उसी समय मैनेजमेंट ने एक कोर्ट आदेश हासिल कर लिया जिसमें कंपनी परिसर से 500 मीटर के दायरे में हड़ताली मज़दूरों के पिकेटिंग करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। सीटू इस आदेश को बड़े आज्ञाकारिता से मान गया और प्लांट से दूर धरना स्थल बनाया और टेंट लगाया। सीटू नेताओं ने वर्करों को बाहरी लोगों से बात न करने का भी आदेश दिया, जैसे कि डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस संवाददाताओं से और वादा किया कि 'सीटू नेतृत्व वर्करों की सभी समस्याओं को हल करेगा।'
जैसे जैसे हड़ताल आगे बढ़ी, डीएमके और केंद्र की बीजेपी सरकार में बेचैनी बढ़ती गई और विभिन्न अधिकारियों ने कड़ी चेतावनियां जारी करना शुरू कर दिया कि यह निवेशकों के बीच भारत और तमिलनाडु की छवि को 'नुकसान' पहुंचा रहा है। हड़ताली मज़दूरों पर पुलिसिया दमन और तेज़ कर दिया गया ताकि उन्हें डराया धमकाया जा सके।
इस पूरे समय में, सीटू, सीपीएम और सीपीआई के नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। उन्होंने पुलिस और अपने डीएमके सहयोगियों की चलताऊ आलोचना करने से ज़्यादा कुछ नहीं किया, जबकि डीएमके सहयोगियों से उन्होंने 'समझदारी' दिखाने की अपील की थी।
और नहीं तो, घाव पर नमक छिड़कते हुए उन्होंने डीएमके सरकार के सामने घुटने टेक दिए और मज़दूरों की एक भी मांग माने बिना ही हड़ताल को ख़त्म करा दिया और सीपीएम, सीपीआई और तमिल राष्ट्रवादी पार्टी वीसीके के नेता 26 अक्टूबर को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन से मिलने पहुंचे और सैमसंग इलेक्ट्रॉनिक्स वर्करों की हड़ताल को 'सौहार्दपूर्ण' तरीक़े से हल करने में दख़ल देने के लिए 'धन्यवाद' दिया।
सीटू की विश्वासघाती भूमिका सीपीएम और सीपीआई की प्रतिक्रियावादी स्टालिनवादी राजनीति से आती है। समाजवाद के लिए प्रयासरत मज़दूर वर्ग की पार्टियाँ होने के उनके दावों के बावजूद, उन्होंने दशकों से पूंजीवादी राजनीतिक सत्ता तंत्र के अभिन्न अंग के रूप में कार्य किया है। उन्होंने भारत को वैश्विक पूंजी के लिए सस्ता श्रम मुहैया करने वाले स्वर्ग में बदलने और चीन के ख़िलाफ़ वॉशिंगटन के साथ 'रणनीतिक साझेदारी' के माध्यम से अपने हड़पाऊ हितों को आगे बढ़ाने के भारतीय पूंजीपति वर्ग के अभियान में महत्वपूर्ण सहयोग दिया।
जुझारू मज़दूर आंदोलनों को अलग थलग करते हुए और दबाते हुए, सीपीएम, सीपीआई और उनका लेफ़्ट फ़्रंट मज़दूर वर्ग को बड़े पूंजीपतियों की पार्टियों के पल्लू में बांधने का काम करता है, इसमें राष्ट्रीय सरकार के लिए बुर्जुआ वर्ग की लंबे समय से चहेती पार्टी कांग्रेस भी शामिल है। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर और राज्यों में एक के बाद एक दक्षिणपंथी, मजदूर-विरोधी सरकारों में हिस्सा लिया है और उनका समर्थन किया है। इसमें तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक दोनों के नेतृत्व वाली सरकारों को समर्थन देना शामिल है।
वे कांग्रेस पार्टी और द्रमुक जैसी क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों के साथ अपने गठबंधन को इस आधार पर सही ठहराने की कोशिश करते हैं कि वे हिंदू वर्चस्ववादी भाजपा का 'धर्मनिरपेक्ष' विकल्प हैं। फिर भी इन सभी पार्टियों का सांप्रदायिकता के साथ सांठगांठ करने का एक लंबा रिकॉर्ड है।
उन राज्यों में जहां सीपीएम के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा सरकार में आता है, पहले पश्चिम बंगाल में और अब केरल में, उसने आईटी क्षेत्र और विशेष आर्थिक क्षेत्रों में हड़ताल पर प्रतिबंध लगाने सहित निवेशक परस्त नीतियां अपनाई हैं।
स्टालिनवादी नेता और ट्रेड यूनियन नौकरशाह जिस बात का पुरजोर विरोध करते हैं, वह है मज़दूरों को पूंजीवादी राजनीति और राज्य नियंत्रित, मालिक परस्त 'सामूहिक सौदेबाजी प्रणाली' के तहत लाना और भुखमरी लायक मज़दूरी, ठेका मज़दूरी और क्रूर कामकाजी हालात के ख़िलाफ़ वर्ग संघर्ष के तरीक़ों के आधार पर जवाबी कार्रवाई से उन्हें रोकना। मालिकों के पक्ष में सरकार के अनिवार्य दख़ल का मुकाबला तभी हो सकता है जब पूरे तमिलनाडु, भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों के अलग अलग संघर्षों को एकजुट करते हुए मज़दूरों की शक्ति की व्यवस्थित लामबंदी की जाएगी।
ऐसा आंदोलन तभी विकसित हो सकता है जब यह समाजवादी-अंतरराष्ट्रीयतावादी नज़रियों से मेल खाता हो यानी मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक लामबंदी के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाता हो, जिसमें भारतीय बुर्जुआज़ी, इसके सरकारी तंत्रों और इसके सभी राजनीतिक प्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ ग्रामीण मेहनतकश आबादी को समाजवाद के लिए संघर्ष में अपने पीछे लामबंद किया जाए।
सीटू ने, सैमसंग वर्करों के वर्ग हितों को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें हतोत्साहित करने और डीएमके सरकार और इंटरनेशनल सैमसंग की ओर से क्रूर श्रमिक-शोषण को कायम रखने के लिए खुद को एक साधन के रूप में साबित किया है।
इसीलिए सैमसंग वर्करों को स्वतंत्र रैंक एंड फ़ाइल कमेटियां बनाकर मुद्दों को अपने हाथ में ले लेना चाहिए। सीटू की अगुवाई वाले एसआईडब्ल्यूयू से उलट इस तरह की एक कमेटी को प्लांट में साझे संघर्ष में परमानेंट, ठेका और अस्थाई वर्करों को एकसाथ लाने की कोशिश करनी चाहिए। इसे सैमसंग प्रबंधन और उनके पीछे खड़े भारतीय राज्य, राजनीतिक सत्ता तंत्र और शासक वर्ग के ख़िलाफ़, और सभी मज़दूरों द्वार झेले जाने वाले क्रूर शोषण और आर्थिक असुरक्षा के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग की सामाजिक शक्ति को संगठित करने की रणनीति के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
पूरे तमिलनाडु और भारत में रैंक-एंड-फ़ाइल कमेटियां बनाई जानी चाहिए, और उत्तर प्रदेश के नोएडा, दक्षिण कोरिया और दुनिया भर में सैमसंग मज़दूरों से विशेष अपील की जानी चाहिए।
रैंक एंड फ़ाइल कमेटियों के ऐसे नेटवर्क को आईडब्ल्यूए-आरएफ़सी (रैंक-एंड-फ़ाइल कमेटियों के अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर अलायंस) का हिस्सा बनाना चाहिए, जो मज़दूरों के वर्ग-संघर्ष का एक नया संगठन है, जो वैश्विक निगमों, साम्राज्यवादी युद्ध और पूंजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ उत्तरी अमेरिका, यूरोप, एशिया और पूरी दुनिया में मज़दूरों को संगठित करने का काम करता है।